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गुरुकुलम्...

          भारत अपने उद्‌गम के उषाःकाल से ही ज्ञान की साधना में व्यस्त और ‘रत’ (मग्न) रहा है । कदाचित्‌, इसी कारण से ही उसका नाम ‘भा’ यानी ‘प्रकाश’ (ज्ञानरूपी प्रकाश) में ‘रत’ अर्थात्‌ ‘भारत’ पड़ गया ।

          हमारी भारतीय आर्य परंपरा में विद्या प्राप्ति की मुख्य व्यवस्था के रूप में गुरुकुलम्‌ एवं पाठशालाएँ केन्द्र स्थान पर थे । सांदीपनि ऋषि के तपोवन में श्रीकृष्णजी और सुदामाजी ने शिक्षा प्राप्त की थी । वशिष्ठ और विश्वामित्र ऋषि के विद्याश्रम भी प्रसिद्ध थे । तप-स्वाध्याय में निरत ऐसे ऋषि ही बच्चों को शिक्षा प्रदान करते थे । उन ऋषियों के संस्कारित जीवन की महक गुरुकुल के सभी विद्यार्थीयों के जीवन को सुगंधित कर देती थी । ऐसी शिक्षा पद्धति के विकसित उदाहरण थे विश्वप्रसिद्ध नालन्दा और तक्षशिला जैसे विश्व विद्यालय ! इसके अलावा वल्लभी, विक्रमशिला, ओदन्तपुरी, मिथिला, काशी, कश्मीर और उज्जैन आदि विश्वविद्यालय भी विख्यात शिक्षा केन्द्र थे ।

          हमारे प्राचीन भारत में शत-प्रतिशत साक्षरता थी । भारत के हर गाँव में एक पाठशाला थी, जहाँ पर सभी वर्ण के बालक एवं बालिकाएँ प्राथमिक अक्षरज्ञान और धर्मनीति की शिक्षा प्राप्त करते थे । हमारे गुरुकुलों में ऋषि-महर्षिओं ने पुरुषों की ७२ कलाओं एवं स्त्रीओं की ६४ कलाओं का प्रशिक्षण देकर भौतिक क्षेत्र में सभी को सामर्थ्यवान्‌ बना दिया था । सिर्फ इतना ही नहीं, उन कलाओं को धर्मकला से नियन्त्रित करके उन्हें आध्यात्मिक मार्ग की ओर अग्रसर भी किया था ।

          आज से २०० वर्ष पहले तक जिस प्रकार की उत्तम शिक्षा भारत में दी जाती थी, वैसी विश्व के किसी भी देश में नहीं दी जाती थी । अंग्रेजों के आगमन से पहले शिक्षा और विद्या प्रचार के क्षेत्र में भारत दुनिया के देशों में सबसे अग्रणी माना जाता था ।

          अंग्रेजों की कुटिलनीति का प्रधान चालबाज खिलाड़ी था मेकोले । उस की अनर्थकारी आधुनिक शिक्षाप्रणाली की सफलता के परिणाम दिखाते हुए उसने कहा था कि, ‘अंग्रेजी शिक्षापद्धति द्वारा भारतीय केवल नाम का ही भारतीय रहेगा, शरीर से भारतवासी होगा, किन्तु मन से, विचार से, वचन और आचरण से वह पूरा अंग्रेज ही बन जायेगा ।’ इस विचार को, पद्धति को, क्रियान्वित करने के लिए प्राचीन पाठशाला (गुरुकुलम्‌) पद्धति का विनाश करना अनिवार्य था । इसलिए शकुनी नीति से गाँव - गाँव में चल रहे विद्यालय बंध करवा दिए । प्राचीन शिक्षा का सामाजिक एवं राजकीय मूल्य ही नष्ट कर दिया । इस प्रकार गुरुकुल शिक्षा पद्धति नष्टप्रायः हो गई । फलतः भारत में उत्तम मनुष्य, राष्ट्रभक्त, नीतिमान्‌ एवं प्रामाणिक व्यक्ति दुर्लभ हो गये और अंग्रेजी शिक्षापद्धति के ढाँचे में ढले हुए निकृष्ट, व्यसनी, व्यभिचारी, आलसी, रोगी और अप्रामाणिक व्यक्ति जो परोक्ष रुप से अंग्रेजीयत के समर्थक थे, ऐसे लोग देश का, समाज का नेतृत्व करने लगे तो रही-सही प्राचीन शिक्षाप्रणाली भी नेस्तनाबूत हो गई ।

          ध्वस्त हुई प्राचीन शिक्षा प्रणाली को पुनर्जीवित किए बिना भारतीय प्रजा एवं संस्कृति का समुद्धार असम्भव है । अतः इस परम्परा को पुनः प्रस्थापित करनी ही चाहिए । तभी, मेकोले-शिक्षा के दुष्प्रभाव से हमारे देश में आज जो दुर्दशा हुई है, उस से हम भारत को बचा पाएंगे ।

 

गुरुकुलम्‌ का मंगल आरंभ :

          मूल बेड़ा (राजस्थान) निवासी एवं हाल साबरमती (अहमदाबाद) में रहनेवाले श्री उत्तमभाई जवानमलजी शाह ने आधुनिक शिक्षा की भयंकरता एवं आर्य शिक्षण की कल्याणकारिता के विषय में सद्‌गुरुदेवों के द्वारा मूल्यवान्‌ मार्गदर्शन प्राप्त किया ।

          और... राजनगर (अहमदाबाद) में प्रकाशपूंज समान गुरुकुलीय आर्यशिक्षापद्धति का पुनःउदय हुआ । पाश्चात्य जीवनशैली के कातिल जहर से संतानों को बचाने के लिए, पुरुषों की ७२ एवं स्त्रीओं की ६४ कलाओं पर आधारित आर्यशिक्षण ही श्रेष्ठ उपाय है, बस... इस पवित्र उद्देश्य और शुभ संकल्प के साथ, श्री उत्तमभाई ने आज से २३ वर्ष पहले अपने और अपने भाईओं के परिवार के पुत्र-पुत्रीओं को घर में ही रखकर आर्य-प्रशिक्षण देना प्रारंभ किया । उसमें सफलता प्राप्त हुई, तो एक कदम आगे बढ़कर वर्षो तक ‘सिद्धाचल-वाटिका’ (साबरमती) में २०-२५ ब़च्चों को गुरुकुल-शिक्षापद्धति के अनुसार प्रशिक्षण देना प्रारंभ किया ।

          और, सन्‌ २००८ में निवासी एवं निःशुल्क ‘साबरमती-गुरुकुलम्‌’ का सिर्फ १३ विद्यार्थिओं की संख्या के साथ, वि.स. २०६५, मृगशीर्ष सुद त्रीज, रविवार, (दि. ३०-१२-२००८) के शुभ दिन पर साबरमती (अहमदाबाद) में प्रारंभ किया गया । आज वह संख्या ८० से अधिक हो चुकी है । इसके फलस्वरूप सुरत, मुंबई, जोधपुर, बैंगलोर, चेन्नई, कनेरी (महाराष्ट्र) जैसे कई स्थानों में भारतीय संस्कृति को प्रकाशमान करने वाले अन्य गुरुकुलों का शुभारंभ हुआ ।

 

गुरुकुलम्‌ द्वारा "मेकोले-पुत्र" नहीं, "महर्षि-पुत्र" का निर्माण :

          ‘साबरमती-गुरुकुलम्‌’ आर्यशिक्षण प्राप्त करने के लिए श्रेष्ठ विकल्प है । यह संस्था आधुनिक विनाशकारी मेकोले शिक्षा-पद्धति से देश को मुक्त करवाने के लिए प्रयत्नशील है । व्यक्ति-निर्माण से कुटुम्ब-निर्माण, कुटुम्ब-निर्माण से समाज निर्माण, समाज निर्माण से राष्ट्र-निर्माण एवं राष्ट्र-निर्माण से विश्वनिर्माण करने में अपना महत्वपूर्ण सहयोग करने के लिए कटिबद्ध है ।

          हम मानते हैं कि इस पाठशाला में से प्रशिक्षण प्राप्त करके बाहर आए हुए विद्यार्थी ‘मेकोले-पुत्र’ नहीं, किन्तु ‘महर्षि-पुत्र’ बनकर भारत को जगद्‌गुरु बनाने में अपना योगदान करेगे ।

 

"गुरुकुलम्‌" द्वारा श्रेष्ठ प्रशिक्षण :

          विद्यार्थीओं को इस ‘गुरुकुलम्‌’ में तत्त्वज्ञान, प्रभुभक्ति के संस्कारों के साथ-साथ संस्कृत, हिंदी, गुजराती, अंग्रेजी, गणित, वैदिक गणित, आयुर्वेद, ज्योतिष्‌, धर्म शास्त्र, न्याय शास्त्र, नीति शास्त्र, वास्तु शास्त्र (Architecture), संगीतकला (गीत-नृत्य-वादन), अभिनय/नाट्य कला, चित्रकला, हस्तलेखन कला, नामालेखा (Account), परामेधा (Mid-brain), आयोजन-प्रबन्ध (Management), योगाभ्यास, इतिहास, भूगोल, पोल/रोप मलखम, कराटे, मार्शल आर्ट, अश्वसंचालन कला (Horse riding), कुस्ती आदि सिखाया जाता है ।

          इस प्रकार, इस ‘गुरुकुलम्‌’ में शिक्षा-विद्या प्राप्त करके प्रशिक्षित हुए विद्यार्थी जीवन का सर्वतोमुखी विकास पा कर इस देश के लिए एक प्रखर राष्ट्र -भक्त और संस्कृति-भक्त बनकर बाहर आएंगे।

धर्म-रक्षा, संस्कृति-रक्षा और राष्ट्र-रक्षा के श्रेष्ठ धर्मयज्ञतुल्य इस ‘साबरमती-गुरुकुलम्‌’ की प्रत्यक्ष मुलाकात लेने के लिए हमारा भावपूर्ण निमंत्रण है ।